31 October 2011

मजबूर औरत की दास्ताँ

कितनी बदली हुई तकदीर नज़र आती है ।
ये जवानी मेरी तस्वीर नज़र आती है ।


हमने सोचा न था हालात कुछ ऐसे होंगे ।
हम जिन्हें अपना समझते थे पराये होंगे ।
अपनी दुनिया में अँधेरे ही अँधेरे होंगे ।
रहके महफ़िल में भी हम इतने अकेले होंगे ।


हर तरफ रंज की तदबीर नज़र आती है ।
कितनी बदली हुई तकदीर नज़र आती है ।



चन्द लम्हों के लिए लाश को जिंदा करके ।
अपनी दौलत से मेरे जिस्म का सौदा करके ।
मेरी इज्ज़त का सरे आम तमाशा करके ।
क्या मिला तुमको भरी बज़्म में रुसवा करके ।

अपनी पायल मुझे ज़ंजीर नज़र आती है ।
कितनी बदली हुई तकदीर नज़र आती है ।


यु न घुट घुट के जिया करती न उलझन होती ।
मेरा अरमान था के मै भी सुहागन होती ।
मेरे चेहरे पे पड़ी शर्म की चिलमन होती ।
कोई जो अक्स मेरा होता मै दरपन होती ।


आज ख्वाबों की न ताबीर नज़र आती है ।
कितनी बदली हुई तकदीर नज़र आती है ।
हिलाल बदायूँनी
Poet Hilal Badayuni

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